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ऐ ग़ालिब तेरे शहर में,ये कैसी गरमी?

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ऐ ग़ालिब तेरे शहर में ये कैसी गरमी है कहीं इंसानियत पे अत्याचार तो कहीं हेवानियत और बेशर्मी है किसे बयां करूँ ? ये शब्दों की सहानुभूति ... कहीं मासूमों   से   बलात्कार तो कहीं धर्मान्ध अधर्मी है ऐ ग़ालिब तेरे शहर में ये कैसी गरमी है कहीं   खुल रहा अय्याशी   का बाज़ार , तो कहीं बढ़ रही कुकर्मी है निति के दोहे अब किसी को रास नहीं आते कहीं वेश्याओं का व्यापार तो कहीं इंसानों में नदारद नरमी है ऐ ग़ालिब तेरे शहर में ये कैसी गरमी है?